बुरा ना मानो होली है

 बुरा ना मानो ''होली'' है 






                         
@डी.एन. शर्मा 
   

  मुल्ला बने पण्डित :

रमजान के पवित्र महीने में हमारी ही पत्रकारिता की जाति बिरादरी के एक महाशय जो अपने आप को प्रखण्ड विद्वान् समझते हैं वह होली आते आते मुल्ला से पण्डित बने। बनते भी क्यों नही भाई इसका भी कारण है चरका खाते खाते थक जो गये। पण्डित बनने से यह फायदा है की वो कहावत है ना की ‘पण्डितों ने मीठी धार के लिए राज को छोड़ दिया’। अब जो नये नये पण्डित बने हैं उनके शुगर है उन महाशय को कौन समझाये की शुगर में मीठे से परहेज करना चाहिए। खैर बुरा न   मानो होली है।

जो दे उसका भी भला, जो ना दे उसका भी भला:

हमारी जाति बिरादरी के ही प्रसिद्ध अख़बार के एक संवाददाता मांडे जी जब फिल्ड में खबर की तलाश में निकल जाते है तो इन महाशय को अजीब शोक है इन महाशय को पुरुष शक्ति से कम लगाव और नारी शक्ति से विशेष लगाव है। और होगा भी क्यों नहीं भाई मांडे जी जो नारी के लिए सदैव तत्पर एंव आपातकालीन 24x7 सेवाओं में उपलब्ध रहते हैं। जो दे उसका भी भला, जो ना दे उसका भी भला। है मालिक कहीं तो उनका भी जुगाड़ बैठा देरे, बुरा ना मानो होली रे।

‘कर्म प्रधान विश्व रची राखा, जो जस करही सो तस फल चाखा’ :

प्रदेश के दुसरे प्रसिद्ध अख़बार के संवाददाता चोर गाँव निवासी पारीक जी नाम तो मोटे है दर्शन कोटे है इन महाशय जी को कौन समझाये ‘कर्म प्रधान विश्व रची राखा’ .....इसी के अनुरूप कार्य करने से तर्क शाका बढती है इन महाशय को ओल्ड स्टोरी लगाने का बहुत शोक है और होगा भी क्यों नही भाई इस युग में ड्राफ्टिंग करने के लिए समय के आभाव में ढाई अक्सर की ड्राफ्टिंग करने पर मजबूर है इन महाशय को पेट्रोल के पैसे तो देदो रे, बुरा ना मानो होली रे।

सहारा कलम कसाई का:

बिना पढ़े ही हम विद्वान् हैं। पढ़े लिखे को धुल चटवाने में दाधीच की पहचान है। अरे भाई हम पैन वाले कसाई नही नही है इस आधुनिक (वैज्ञानिक) युग में मोबाईल के आधार पर समाचार बनाते व परिवार का जीवन व्यापन करते। अरे भाई इन महाशय को कौन समझाये मोबाईल बेट्री डिस्चार्ज़ हो जाति है तो बेचारे दाधीच जी शक्ल उतारकर बैठ जाते हैं। कलम कसाई का ही सहारा लेकर बेचारे महाशय जी जुगाड़ बिठा थे है। बुरा ना मानो होली है।

घमंड रावण का:

पानी से बर्फ बनाता हूँ, इतनी महनत करता हूँ, बर्फ सिर्फ गर्मी के मौसम में बिकती है, बाकि बचे समय में पत्रकारिता करता हूँ। इसमें आने के बाद रावण के चरित्र के अनुसार प्रचुर घमंड साथ लेकर चलता हूँ अब इन महाश को भी कौन समझाये की जरुरत से ज्यादा घमंड ही तो रावण को ले डूबा था। बाबा को कुछ तो देदो रे बुरा ना मानो होली रे।

सेठ को हुआ भुत सवार कलम कसाई बनने का:

गुरु को गुरु नही समझता हूँ, गुरु कहाँ लगता है मेरे में स्वयं ही गुरु, ब्रह्मा, विष्णु, महेश हूँ क्यों भाई इन महाशय जी को कौन समझाये चाय पत्ति की दुकान पर बैठ कर सेठ कहलाता था कलम कसाई बनने के बाद ग्राहक को छोड़ कर सरकारी कार्यालयों के चक्कर लगाते लगाते बुढ़ापा जल्दी आ गया रे फिर भी समाचार कम ही हाथ लग पाते हैं। बाबा चाय पत्ती तो देदो रे, बुरा ना मानो होली रे।


मामा की सरकार जाते ही भांजा हुआ बेकार:

ज्यों ही कांग्रेस सरकार गयी हमारी जाति बिरादरी के एक महाशय खाबे जी का धंधा चौपट हो गया अब बेचारे खाबे जी भी क्या करे दूसरों की थाली में घी ज्यादा नजर आता है। यह महाशय भी पत्रकारिता में मूंछो के बल लगाते लगाते नौकरी दिलाने के चक्कर में फंस गये। और स्वयं के गले में खतरे की घंटी बांद ली, अरे बाबा खाबे जी को अन्न का नही तो साग-सब्जी का जुगाड़ तो बैठा दो रे। मामा जी की सरकार जाते ही भांजा हुआ बेकार रे। बुरा ना मानो होली रे।



[यह लेखक के अपने विचार है, सम्पादक का सहमत होना आवश्यक नही है, बुरा ना मानो होली है। डी.एन.शर्मा (लेखक/पत्रकार)]

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